شعر شیرازی "کِلِنجُمِ جُويدم"
یک شنبه 28 اردیبهشت 1393 9:43 PM
هَميطُو چيش انتظار در ِپُييدَم
بسکه تو سَرمُ نِشِسّم چُييدم
هی هاکَک کِردم رفتم تو خُدُم
کف دسّام ِبِه همديگه سُويدم
يِی سايه ی افتادُ گُفتَم خُدِشه
هَمی کِه کِر ِدَروُ واز شُد دُويدم
هُولَکی خُدُم ِرَسُندم دم در
رو يخا از بی حواسی سُريدم
تُ ديدُم بد جوری از خُوِدِش وارَف
از پشيمونی کِلِنجُم جُويدم
يِی چی گُف که خيلی دمغ شدم
وُيسادم خوب تو چيشاش ِکُويدم
گفتمش شانومه آخِرش خُوشه
ديگه بَرگشتم اَز ِش دل بريدم
کِلِنجُم | انگشتم را |
هَميطُو | همين طور - ساعتها |
چيش | چشم |
در ِ | در را |
در ِپُييدَم | در را پاييدم - چشم به در دوختم |
سَرمُ | سرما |
چُييدَم | سرما خوردم |
هاکک کِردم | خميازه کشيدم - دهن دره کردم |
دَسّام ِ | دستهايم را |
سُويدَم | ساييدم |
يِی | يکی |
سايه ی | سايه ای |
هَمی که | همين که |
کِر ِ | گوشه ی |
درو | آن در |
هُولَکی | با عجله - سراسيمه |
خُدُم ِ | خودم را |
رَسُندم | رساندم |
سُريدَم | سر خوردم - ليز خوردم |
تُ | تا |
ديدُم | مرا ديد |
يِی چی | يک چيزی - يک حرفی |
گُف | گفت |
وُيسادَم | ايستادم |
تو | توی -در |
چيشاش ِ | چشم هايش را |
کُويدَم | کاويدم - نگاه کردم |
خوب تو چيشاش ُکُويدَم | خوب تو چشماش خيره شدم |
شانومه | شاهنامه |
خُشه | خوش است |
گفتم که خدا مرا مرادی بفرست ، طوفان زده ام راه نجاتی بفرست ، فرمود که با زمزمه ی یا مهدی ، نذر گل نرگس صلواتی بفرست